Wednesday, October 20, 2010

ऐसी "नई किरन" बनाएँ


स्वर्ण युग के दीपों में जलती बाती,
आज गरीब के पेट में दहक रही है,

जहाँ एक दीपक जलता है,
हर कोना रौशन  होता है,

जब एक पेट जलता है,
पीढ़ियों तक सुलगता है,

एक रोटी कम खाने से
इन्सान मर तो नहीं जायेगा,

पर एक ही रोटी खाने से 
पेट तो भर  नहीं  पायेगा 

भूख और गरीबी कोई धर्म नहीं मानते 
मंदिर-मस्जिद भी भूख को नहीं पहचानते 

आस्था एक ही है ईश्वर ने घर बदल लिये हैं
भवनों को छोड़ अब वो बन्दों में शरण लिये हैं

इमारत भूल कर चलो इन्सान बचाएँ ,
कहीं अँधेरा ना रहे, ऐसी "नई किरन" बनाएँ

प्रभात

5 comments:

  1. achchi kavita hai.
    aisi hi nai kiran banani hai.

    ReplyDelete
  2. yes sachita ji behad hi achhi poem nayi kiran ko ek nayi disha dene k liye protsahit kar rahi hai

    thank u prabhat ji
    wish u best for the next one.

    ReplyDelete
  3. a very fine example of sensitive poetry.congrats to parbhaatji

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर भावों को सरल भाषा में कहा गया है. अच्छी रचना

    ReplyDelete