स्वर्ण युग के दीपों में जलती बाती,
आज गरीब के पेट में दहक रही है,
जहाँ एक दीपक जलता है,
हर कोना रौशन होता है,
जब एक पेट जलता है,
पीढ़ियों तक सुलगता है,
एक रोटी कम खाने से
इन्सान मर तो नहीं जायेगा,
पर एक ही रोटी खाने से
पेट तो भर नहीं पायेगा
भूख और गरीबी कोई धर्म नहीं मानते
मंदिर-मस्जिद भी भूख को नहीं पहचानते
आस्था एक ही है ईश्वर ने घर बदल लिये हैं
भवनों को छोड़ अब वो बन्दों में शरण लिये हैं
इमारत भूल कर चलो इन्सान बचाएँ ,
कहीं अँधेरा ना रहे, ऐसी "नई किरन" बनाएँ
प्रभात
achchi kavita hai.
ReplyDeleteaisi hi nai kiran banani hai.
yes sachita ji behad hi achhi poem nayi kiran ko ek nayi disha dene k liye protsahit kar rahi hai
ReplyDeletethank u prabhat ji
wish u best for the next one.
a very fine example of sensitive poetry.congrats to parbhaatji
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना|
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावों को सरल भाषा में कहा गया है. अच्छी रचना
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