Monday, August 8, 2011

ऐसा देश है मेराः जहाँ है विकास की विविधता



सही कहा गया है कि भारत जैसी विविधता किसी और देश में नहीं मिल सकती मौसम से लेकर भाषा तक। यहाँ तक की मील -मील पर पानी बदलता है लेकिन देश विकास में भी ऐसी विविधता मिलना क्या दर्शाती है? विश्व में भारत को आधुनिक टोक्यो दिखाने के मकसद से राजधानी के कनाट प्लेस एरिया में फुटफाथ पर हजार करोड़ रूपये के लाल संगमरमर पत्थर लगाये जाते है जबकि विकास का विविधता का दूसरा पहलू यह है कि विकास की पटकथा से इतर सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में किसान फसल चैपट हो जाने के बाद कर्ज मे डूबकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। अब आप ही बताईए इतनी विविधता कहाँ मिलेगी किसी देश में।

हाल में कैग की आयी ताजा रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि बीते साल खेल महाकुम्भ की तैयारियों के लिए कनाट प्लेस को स्वर्ग बनाये जाने की योजना वर्ष 2005 में बनाई गई थी इसके लिए 76 करोड़ रूपये का अनुमानित बजट बनाया गया था और 2007 आते आते कनाट प्लेस को चमकाने का बजट 9 गुना बढकर 671 करोड़ हो गया। राजधानी का दिल कहे जाने वाले इस जगह के फुटफाथ पर लाल संगमरमरी पत्थर लगाये गये। सीसे सरीखा चमकने वाले इन पत्थरों पर विदेशियों को भारत की छवि दिखाई गईं कि भारत कितने विविधता वाला देश है जहां राजधानी में फुटफाथ पर महंगे पत्थर लगते है वहीं ग्रामिण क्षेत्रो की सड़कों पर इटें तक नहीं बिछाये जाते।

इसे देश की विडम्बना ही कहेंगे कि किसानों की एक बार कर्जमाफी करने पर सरकार कई चुनाव तक अपना ऐहसान इन अन्नदाताओं पर जताती है लेकिन इन्ही किसानो की खून व पसीने से निकले पैसे को सरकार राजधानी को जन्नत बनाने के लिए फुटपाथ पर रंगीन संगमरमर पत्थर लगा दिये जाते है लेकिन तब कोई किसान व आम आदमी सरकार पर कोई एहसान नहीं दिखाता। दिल्ली में आयोजित हो चुके इन खेलों के लिए उस वक्त कई सौ करोड़ खर्च कर खिलाडियों के लिए सफदरजंग मे इंजरी हॉस्पिटल निर्मित किया गया यह बात अलग है कि करोड़ो की मशीने व चिकित्सा उपकरण के सील भी अभी तक नहीं खुले होंगे जबकि दूसरे परिपेक्ष्य मे सरकार द्वारा विविधता का इतना सही संतुलन है कि पूर्वांचल में प्रत्येक वर्ष हजारों बच्चे इन्सेफ्लाईटिस बीमारी की वजह से अपनी जान गंवा देते है और ऐसे क्षेत्र में पिछले दो दशको में सरकार के पास इतना बजट नहीं जुट पाया कि वह इस बीमारी से दो चार होने वाले ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के लिए एक बेहतर अस्पताल खड़ा कर सके। इसी कामनवेल्थ के लिए राजधानी को दुधिया रौशनी से नहलाने के लिए विदेशों से स्ट्रीट लाइट मंगाइ गई जिसके एक लाइट की कीमत 35 हजार रूपये थी और पूर राजधानी को जगमगाने मे सरकार ने करोडो रूपये पानी की तरह बहाये, यह वही देश है जहां कई गांवो स्ट्रीट लाइट तो छोड़िये एक बल्ब की रोशनी तक नहीं पहुची हैं । विकास किसे पसंन्द नहीं लेकिन अगर इस विकास की शर्तों का खामियाजा सिर्फ आम आदमी व किसान भुगतते है तो यह विकास शोषण का रूप ले लेता है सरकार कब समझेगी कि देश की असली छवि कनाट प्लेस पर जन्नत बनाने से नहीं ग्रामीण क्षेत्रो में विकास की गंगा बहाने से बनेगी । विविधता मौसम में अच्छा लग सकता है भाषा मे लग सकता है लेकिन समाजिक परिवेश में विविधता एक खाई बनाती है और यह दूरिया इंडिया व भारत में जैसी विविधता भी पैदा करती है ।


अभय कुमार पाण्डेय

Friday, August 5, 2011

कैग का खुलासा - पाँच साल सोयी रही सरकार






     देश के सम्मान से जुड़े कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन पर सरकार कितनी सक्रिय थी इसका खुलासा कैग की ताजा रिपोर्ट से हो जाता है जिसमें बताया गया है कि कॉमनवेल्थ खेलों की योजना प्रारूप बनाने में ही सरकार ने पांच वर्ष का समय जाया किया।
    नवंबर 2003 में दिल्ली को खेल महाकुम्भ की जिम्मेदारी मिली लेकिन अगले तीन सालों में सरकार इस खेल महाकुम्भ के आयोजन पर एक नक्शा भी तैयार नहीं कर पाई। इस दौरान सरकार आयोजन समिति के गठन में जुटी रही। जिसे वर्ष 2003 में कॉमनवेल्थ की  दावेदारी के समय सरकार के अधीन काम करने वाली संस्था दिखाई गयी लेकिन इन  शर्तों की अनदेखी करते हुए सरकार ने इसे स्वतंत्र संस्थान के रूप में वर्ष 2005 में आयोजन समिति का पंजीकरण कराया।
     यह देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जिस संस्था को इतने बड़े खेल आयोजन का मोर्चा संभालना था उसका पंजीकरण खेल आयोजन से मात्र पांच वर्ष पूर्व कराया गया। कैग ने सरकार की इस देरी पर भी सवाल उठाते हुए कहा है कि जितने दिनों में आयोजन समिति के पंजीकरण में सरकार मसगूल रही उतने में कॉमनवेल्थ की कार्य योजना तैयार हो जाती। ब्रिटेन में होने वाले ओलम्पिक में पांच वर्ष पहले स्टेfडयम तैयार हो जाते हैं और कैग रिपोर्ट के अनुसार भारत में हुए कॉमनवेल्थ के पांच वर्ष पूर्व कार्य योजना तैयार करने के लिए सलाहकार तक नियुक्त नहीं हो पाए थे।  वर्ष 2006 में आयोजन समिति की नींद खुली और ईकेएस को कॉमनवेल्थ में होने वाली परियोजनाओं के निर्माण की योजना तैयार करने के लिए सलाहकार नियुक्त किया गया।
     अभी यह तो ट्रेलर था। आयोजन समिति ने इसके बाद विभिन्न खेल स्थलों के निर्माण के डिजाइनों में कई परिवर्तन कराए जिसमें न सिर्फ पैसे अतिरिक्त खर्च हुए बल्कि देश की इज्जत भी ताक पर लग गईं।
     कैग रिपोर्ट के बाद कॉमनवेल्थ खेलों की योजना तैयार करने में आए खुलासे से साफ होता है कि क्यों इस खेल को कामन मैन की जेब पर डाका माना गया। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन को लेकर खूब होहल्ला मचा लेकिन कैग रिपोर्ट से अब यह साफ होता है कि खेल प्रोजेक्टों में देरी व अतिरिक्त पैसे के खर्च का जिम्मेदार सिर्फ सरकार की गलत नीतियां हैं।

अभय कुमार पाण्डेय 




Friday, December 10, 2010

अमीरी- गरीबी के बीच


आज़ादी के बाद चहुँ ओर विकास हुए हैं , मगर गरीब अमीरी से और अमीर गरीबों से और भी दूर हुए हैं | पिछले सप्ताह  फेसबुक पर एक कवयित्री जी ने यह प्रश्न उठाया कि " अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को कैसे पाटा जाए" | बहुत सारे तार्किकता और वास्तविकता वाले जवाब मिले और समाधान के साथ कुछ दर्शन और मानसिकता का स्पष्टीकरण भी हुआ | 
      हम लोग जब कोई भी उत्पाद खरीदते हैं तो एक दोहरा चरित्र धारण कर लेते हैं और यह चरित्र सामने के उत्पाद तथा विक्रेता के अनुसार बदलता है |  महंगा और ब्रांडेड उत्पाद खरीदने के लिए उसकी कीमत से अधिक देकर भी संतुष्ट रहते हैं जबकि एक पाव टमाटर लेने से पहले भी एक-एक रूपये के लिए भी बहस करने लगते हैं | और अगर लगा कि सब्जी या फल वाले ने एक-दो रुपया अधिक ले लिया है तो बुरा लगने लगता है | ताज़ा फल, सब्जी, दूध हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है मगर हमें सस्ता चाहिए | वहीँ शराब या नशीले पेय के लिए अधिकतम दाम चुका कर, नशे में लुटकर और अपनी सेहत को नुक्सान पहुंचा कर भी शायद कोई मलाल होता हो |  करोड़ों लगाकर घर बना  सकते हैं लेकिन मजदूर को 10 रूपये ज्यादा नहीं दे सकते |  फ्लाईट में हजारों खर्च करके , लाखों  की गाड़ी खरीद कर ठगा सा महसूस होने पर अपने नुकसान की भरपाई के लिए एक रिक्शा वाले से 5 रूपये के लिए भी लड़ भी सकते हैं | और शायद इन्ही 2 या 5  रूपये से अपने महीने भर का बजट संतुलन करते हैं | 
      ये हमारे दिमाग में बैठ चुकी मानसिकता नहीं है तो क्या है ? देश में जनसँख्या के लिहाज से सबसे बड़ा मध्यम वर्ग तो इस प्रकार के जीवन को जीने का सबसे ज्यादा आदि हो चुका है , साथ ही यही मध्यम वर्ग अमीरी-गरीबी के बढ़ते हुए अंतर पर सर्वाधिक चिंतित भी नजर आता है | उच्च वर्ग के लोग तो और भी एक कदम आगे निकल जाते हैं , दिन भर के लिए लाखों अय्याशी में उड़ा देने वाले सब्जी या फल खरीदने के लिए अपनी गाड़ी से कुछ दूर सिर्फ इसलिए पैदल चल कर जाते हैं कि कहीं गाड़ी का खामियाजा 10-20 रु अधिक देकर न चुकाना  पड़ जाये |  किसी भी वर्ग की हो मगर महिलाएं इस कार्य के लिए अधिक निपुण होती हैं जो 25000 रु का मोबाइल हाथ में लेकर तथा लाखों कि ज्वेलरी पहन कर भी  2-2 रु का मोलभाव भलीभांति कर सकती हैं | 
      हमारे देश की लगभग 72 % जनसँख्या ग्रामीण है और उसमें  ज्यादातर लोग कृषि कार्यों में लगे हैं , फिर भी 2009 -10 के कुल सकल घरेलु उत्पाद (जी डी पी) में मात्र 14.6  % का ही योगदान करते हैं , हालाँकि अभी राष्ट्र को अन्न उत्पादन में  आत्मनिर्भर माना जा सकता है | दूसरी ओर औद्योगिक क्षेत्र का इसकी  जी डी पी में 28 % का योगदान है | द्वितीयक क्षेत्र के लोग कृषि उत्पादों को सिर्फ पैक करा कर उत्पाद की कीमत को लगभग दुगुने मूल्य पर बेच लेते हैं | जबकि न तो वहां साल भर श्रम लगता है और न ही मौसम का जोखिम | इसके बदले अपना सबकुछ दांव पर लगाकर एक किसान अपने उत्पाद को बहुत ही कम दाम पर बेचने के लिए विवश है | क्या सिर्फ पैकिंग और भंडारण किसान के उत्पाद (प्रथम स्तर पर) से ज्यादा महंगा हो सकता है ? परन्तु तस्वीर तो यही है | यह हमारे देश के संचालकों ( राजनेताओं )  का अपने देश के किसानो के साथ किया जा रहा दुर्व्यवहार ही तो है जो किसानो और गरीबो के उत्थान के लिए एक सफल नीति बनाने में असफल रहे हैं | 
      लेकिन हम चाहें तो इस विडम्बना को कम करने में योगदान अवश्य कर सकते हैं | सबसे पहले अपनी  गैर जरूरी विलासिताओं को कम करना होगा | श्रम आधारित कार्यों और उनमे लगे लोगो को समुचित सम्मान और पारिश्रमिक  देने की नीयत पैदा करें | प्राथमिक स्तर के उत्पादों को उचित कीमत पर खरीदें न कि मामूली से परिवर्तन के साथ अनुचित मूल्य के मंहगे उत्पाद | सरकार को भी उत्पादों की कीमत तय करने के लिए ऐसे मानक बनाने होंगे जिससे लागत आवश्यकतानुसार ही बढ़ सके | ऐसा करने से इस देश के किसानो, मजदूरों व गरीबों  की स्थिति जरूर सुधरेगी और 1 अरब से अधिक जनसँख्या वाले देश में मानवश्रम को न्याय प्राप्त होगा | इस से देश का अमीर तो अमीर ही रहेगा पर शायद  यह छोटा सा कदम भी हमारे देश पर से गरीबी का भार कुछ कम कर सकता है  |                                                  

प्रभात 

Sunday, November 28, 2010

पूर्वांचल के लिए अभिशाप बनी इन्सेफलाइटिस




           हमारे देश की अजब बिडम्बना है कि यहां बीमारियों को भी गरीबी और अमीरी में तौला जा रहा है जहां देश में स्वाइन फलू को लेकर संसद के गलियारों से लेकर राष्ट्रीय मीडिया तक हाय तौबा मचाया जाता है वही दुसरी तरफ पूर्वाच्चल के तराई क्षेत्रों में प्रत्येक वर्ष सैकडों बच्चों की जान इंसोफलाइटिस लील जाती है लेकिन इस गवई बीमारी पर सुध लेने वाला कोई नही। 

           उत्तर प्रदेश की इस क्षेत्र की सीमा बिहार और नेपाल से लगती है जो की अपने गन्ना के पैदवार के लिए जाना जाता है लेकिन तराई क्षेत्र होने के नाते जहां गन्ना खेती के लिए ये  उपयुक्त जमीन होती है वही पानी का जमाव होना इस क्षेत्र को संक्रामक बीमारियों का गढ बना देती है। इन संक्रामक बीमारियों में इन्सेफलाइटिस यानी मस्तिष्क ज्वर पिछले तीन दशक के दौरान करीब 50 हजार लोगों की जीवन ज्योती  बुझा चुकी है अगर हम इस वर्ष के आकडे की बात करे तो तकरिबन 3447 बच्चे इस बीमारी से प्रभावित हुए है जिनमे 497 बच्चे काल के गाल में समां गये है। इस बीमारी के गिरफ्त  में पूर्वाच्चल के तकरिबन 10 जिले आते है जिनमे कुशीनगर देवरिया महराजगंज गोरखपुर सिद्वार्थनगर बस्ती संतकबीरनगर बहराइच प्रमुख है साथ ही नेपाल के तराई क्षेत्र भी इस बीमारी से प्रभावित होते है लगभग 3 करोड आबादी के इस परिक्षेत्र में चिकित्सा सुविधा की जिम्मेदारी खस्ताहाल में पहुच चुके गोरखपुर स्थित बाबा राधवदास मेडिकल कालेज पर है। इस बीमारी का ताडव यह होता है कि मेडिकल कालेज के इंन्सोफलाइटिस वार्ड में तिल रखने तक की जगह नही बचती नए मरीजो को तब जगह मिल पाता है जब किसी पर परिवार का एक चिराग बुझ जाता है। ऐसा नही है कि संसद में बैठे हुकमरानों को इसकी जानकारी नही है दो वर्ष पूर्व इस मौत के ताडव देखने सफेद पोशाक वाले लोग यहां का दौरा कर चुके है और उन्होंने इस बीमारी पर अंकुश लगाने के लिए करोडों रूपये खर्च कर वेक्सीन मगाया लेकिन शायद यह उनके वादे की तरह ही निकला और वेक्सिन लगने के बाद भी इस बीमारी पर अंकुश न लग सका। विलायती बीमारी यानी स्वाइन फ्लू देश में पहुचतें ही संसद गुजने मीडिया दहाड मारने लगी और आलम यह हो गया कि  सरकार फौरन हरकत में आयी और क्या स्वास्थय मंत्री, प्रधानमंत्री तक को इस पर अपनी सक्रियता दिखानी पडी जबकि इस बीमारी का आकडा इन्सोफलाइटिस की तुलना में 10 प्रतिशत भी नही था। गन्ना की खेती कर के  दुसरे के मुंह को मीठा करने वाले पूर्वांचल के लोगो की जिन्दगी का मिठास और नीद इस गवई बीमारी ने उडा रखा है लेकिन जनता के मसीहा बनने वाले नेता अपने एसी कमरे चैन की नीद ले रहे है। शायद सियासत की रोटी सेकने वाले इन सफेद पोश नेताओं को इंतजार है एक नयी राजनीतिक समीकरण बनने का जिससे वे हमारे अंचल के लोगो एहसास दिला सके की देखे तुम सब कितने असहाय हो और इस चढावे में हम चल पडे तेलगांना की तरह पूर्वाच्चल बनाने की राह पर...



अभय कुमार पाण्डेय

Friday, November 12, 2010

अब हवा पर चलकर देखेंगे



राहों पर चलते -चलते थक चले ,
अब हवा पर चलकर देखेंगे ,

खुशियों की खातिर क्या-क्या न किया ,
अब गम संजो कर देखेंगे ,
मंजिल ढूंढते  रहे, पर न मिली , 
न पहचान सके कहाँ है ,
घर द्वार छोड़ा जिसके लिए ,
अब उस मंजिल को छोड़कर देखेंगे ,
ख्वाबों की नीव पर हर रात ,
एक नया महल बनाया अधुरा सा ,
वो महल जब पूरा होगा ,
तब सपना तोड़कर देखेंगें ,   

राहों पर चलते -चलते थक चले ,
अब हवा पर चलकर देखेंगे ,

तकदीर की खींची रेखाएं ,
कुछ बनाती है कुछ बिगाडती है ,
हाथो पर लिखा न समझ  सके ,
तो तकदीर मिटा कर देखेंगे ,
फुर्सत न हुई फुर्सत में भी कभी ,
जीवन इतना व्यस्त रहा ,
मरना भी मुश्किल हुआ तो क्या ,
अब जीवन को फुर्सत से देखेंगे ,
सुबह -दोपहर- शाम -रात बीती ,
दिन - दिन कर जाने क्या -क्या बीता ,
जो बीत गया अतीत था शायद ,
हम नया युग बना कर देखेंगे ,

राहों पर चलते -चलते थक चले ,
अब हवा पर चलकर देखेंगे...

प्रभात 

Monday, October 25, 2010

स्त्री शक्ति और मुक्ति पर उठते सवाल


     
      आज समाज के ठेकेदारों के मन में स्त्री शक्ति और मुक्ति को लेकर अनेक प्रकार के रहस्य व्याप्त हैं। जैसे कि आज की नारी को इतनी आजादी मिल गई है कि वह काबू में नहीं है, न्यायपालिका स्त्रियों की शुभचिंतक  बनी हुई है, नारियों के लिए विधायिका कुछ ज्यादा ही लचीला व्यवहार अपना रही है। इसी प्रकार के सैकड़ों सवालों ने उन्हें परेशान कर रखा है। आज की नारी ने जिस तरह से अपने आप को इस पितृसत्तात्मक समाज के सामने पेश किया है उससे उन्हें अपनी सत्तात्मक दीवार-हिलती ढुलती नजर आ रही है, जो एक जमाने में चीन की दीवार की तरह अडिग थी।
       यह पुरूषसत्तात्मक समाज माने या न माने लेकिन बिना स्त्री के सहयोग के वे अपने को समाज में स्थापित करने में असमर्थ रहे हैं। इसका वर्णन आज से नहीं बल्कि वैदिक काल से ही मिलता है कि वह अपने अस्तित्व को समाज में पुरूषों से पृथक रहकर भी कायम रखने में सक्षम हैं और यही पुरूष वर्ग की चिन्ता का विषय है। यह सत्य है कि बिना उदारवादी और साम्यमूलक पुरूषों की मदद के यह कार्य सम्भव नहीं था परंतु इसके पीछे एक प्रगतिशील समाज की जरूरत थी जो बिना उस वर्ग विशेष (नारी वर्ग) के सहयोग से सम्भव नहीं दिखती थी।
       आज के समाज का कोई भी क्षेत्र स्त्रियों से अछूता नहीं है चाहे वह प्रशासन हो, खेल हो, कार्पोरेट सेक्टर हो, सेना हो, विज्ञान हो। हर क्षेत्र में नारी शक्ति ने अपना परचम लहराया है। इसी का उदाहरण भारत की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, भारत की प्रथम महिला आई़0पी0एस0 किरण बेदी, बैडमिंटन सनसनी साइना नेहवाल, टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा, चंद्राकोचर, सोनिया गॉधी, अंजू बॉबी जार्ज,ऐश्वर्या राय, कल्पना चावला, प्रथम लोक सभा स्पीकर मीरा कुमार,लता मंगेशकर, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान, डोना गांगुली आदि हजारों मिशालें हमारे सामने हैं।
    नारियॉ सिर्फ अपना योगदान आधुनिक युग में समाज के प्रत्यक्ष उत्थान में नहीं दे रही बल्कि आजादी की लड़ाई में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था। गॉधी जी ने नारी शक्ति को पहचाना और आंदोलनों में उनके प्रत्यक्ष भागीदारी को प्राथमिकता प्रदान की। यहॉ तक की क्रांतिकारी आंदोलनों में भी महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। परंतु तब की महिला तथा आधुनिक महिला में अंतर यह है कि आधुनिक महिला अपने अधिकारों तथा अपने मुल्यों के बारे जागरूक है और उसे उन्हें प्राप्त करने की प्रक्रिया का भी ज्ञान है, परंतु पहले वे अधीन एवं दिशाहीन थी।
       लेकिन सवाल यह है कि महिलाओं को अनेक प्रकार के अधिकार दे देने के बाद भी क्या महिलाएं स्वतंत्र एवं सुरक्षित हैं? जेसिका लाल हत्या काण्ड, मधुमिता काण्ड, प्रियदर्शनी मट्टू  हत्याकाण्ड, आरूषि हत्याकाण्ड, निठारी कोठी काण्ड ऐसे अनेक उदाहरण है जो आज भी स्त्रियों की दयनीय स्थिति को प्रकट कर रहे हैं। यह वही समाज है जो एक तरफ स्त्रियों के पक्ष में लिव इन रिलेशनशिपका अधिकार देता है और दूसरी तरफ आनर किलिंगपर अंकुश लगाने में असमर्थ रहा है। भारतीय दण्ड संहिता में धारा 304(ख), 354, 366, 376(क से घ), 497, 498(क), 509 के प्रावधान स्त्रियों के रक्षार्थ किये गये हैं, परंतु यहॉ सवाल यह है कि ये प्रावधान कहॉ तक अपने उद्देश्यों को पूर्ण करते हैं।
   आज के समाज में इस बात पर विश्वास करना असम्भव है कि शायद ही कोई लड़की हो जिस पर छीटाकशी न की गई हो, शायद ही कोई महिला हो जो किसी पुरूष के अधीन न हो(चाहे जितने बड़े ओहदे पर हो),शायद ही कोई क्षेत्र हो जहॉ रात और दिन महिलाएं स्वछंद होकर विचरण कर सकती होंशायद ही कोई कार्यस्थल हो जहॉ महिलाओं को लेकर राजनीति न होती हो। इन सभी सवालों के होते हुए भी यह पुरूष सत्तात्मक समाज अपने को महिलाओं को बराबरी का हक देने का दिखावा करता है, यह कहॉ तक सही है
       इस स्थिति में अगर समाज की कुछ बुद्धिजीवी  महिलाएं अपने को बराबरी पर लाने के लिए आवाज बुलंद करती है तो पुरूष वर्ग को सुई चुभ जाती है और वह तरह-तरह के बहाने लेकर महिलाओं की आवाज को दबाने की जुगत लगाने लगते हैं। इसी क्रम में कागज पर महिलाओं को थोडे़-बहुत अधिकार देकर उन्हें चुप कराया जाता हैं, जो अधिकार सिर्फ कागज तक ही सीमित रह जाते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि उन्हीं के एक साथी (जो पिता, भाई, पति आदि के रूप में होते हैं) के द्वारा अपनी झूठी शान के लिए महिलाओं की आवाज को दबा दी जाएगी।
       मेरा एक स्वतंत्र विचारक के तौर पर या महिलाओं के प्रतिनिधि के तौर पर, जो आप उचित समझे समाज के ठेकेदारों से अनुरोध है कि अपनी इस दोहरी नीति को विराम देते हुए महिलाओं के उत्थान में तथा समाज के उत्थान में वास्तविक भागीदारी दें। एक तरफ तो यही पुरूषासत्तात्मक समाज महिलाओं को अपने फायदें के लिए इस्तेमाल करता है और दूसरी तरफ महिला वर्ग की आलोचना से नहीं चूकता(जैसे विज्ञापनों में महिलाओं को अमर्यादित ढंग से पेश करना और फिर आलोचना करना)। पुरूष वर्ग से इस लेख के माध्यम से अनुरोध है अपनी मुंह में राम, बगल में छूरीकी नीति को बंद कीजिए। साथ ही अगर वास्तविकता में महिलाओं के शोषण को बंद करना चाहते हैं और उन्हें बराबरी पर लाना चाहते हैं तो सबसे पहला काम अपनी संकुचित सोच को महिलाओं के प्रति परिवर्तित कीजिए। तभी आप समाज के उत्थान में वास्तविक भागीदार बन सकते हैं।

 रूबी सिंह

Sunday, October 24, 2010

कामनवेल्थ के बाद की दिल्ली



कामनवेल्थ गेम के दौरान दिल्ली ऐसी रही जैसे रेत पर दिखने वाली मृगमरीचिका। जिस प्रकार मृगमरीचिका में जब हम रेत पर दूर तक नजर दौडाते हैं तो कभी ऐसा एहसास होता है कि हमारे आखों के सामने जल सागर हो लेकिन जब हम आगे बढते हैं तो यह एक स्वप्न के सामान टूट जाता है। ठीक इसी प्रकार दिल्ली को भी हमने इसी नजर में देखा। खेल महाकुम्भ के बीतते ही सबकुछ पहले जैसा हो गया अब फिर सिग्नल पर गाड़ियाँ रूकते ही भिखारी दिखने लगेसडकों के किनारे लगे पौधे सूखने लगे ,ट्रैफिक वाले अपनी रूआब दिखाने लगेपुलिस भी हफ़्ता लेकर ठेले लगवाने लगी और ब्लू लाइन भी आ पड़ी अपनी रफ़्तार दिखाने , दिल्ली मेट्रो वाले तकनीकी खामियों से यात्रियों को रूलाने लगे और इनमें सबसे खास बात तो यह है कि अब गरीबों की कुटिया यानी झुग्गियां भी सड़कों से दिखने लगीं।
दिल्ली सरकार ने कामनवेल्थ के लिए दिल्ली की कमियों दूर करने के बजाय इसे पर्दे की आड़ में छिपाने की कोशिश की और इसमें काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन इस पर्दे के पीछे न जाने कितने गरीब लोग महिनों तक रोटी कमाने के संघर्ष में जूझते रहे । सरकार ने इन समस्याओं का स्थायी हल निकालने के बजाये इस टालने का जो काम किया है वह समस्या बदस्तूर यूँ ही जारी रहेगा। जहाँ राजधानी में कॉमनवेल्थ को उच्च तबका त्योहारों की तरह मनाने में लगा था वहीँ गरीब वर्ग मनहूसियत की इस घड़ी को कोश रहा था। सरकार ने दिल्ली के विभिन्न इलाकों में स्थित हजारों झुग्गियों का पुर्नविस्थापन करने के बजाय शेरा के चित्र के बने बड़े बड़े होर्डिंग से इन्हें छिपाकर सुन्दर दिल्ली बना रखी थी। उन्ही झुग्गियों में रहने वालों का एक बड़ा तबका रेहड़ी लगाकर अपना जीवकोपार्जन करता रहा है लेकिन खेल होने के दो माह पूर्व ही सरकार के निर्देश से पुलिस ने इनके सड़कों पर रेहड़ी लगाने पर रोक लगा दी। इन गरीबों को खेल खत्म होने के बाद फिर से पुलिस की मेहरबानी से सड़कों पर रेहड़ी लगाने का आश्वासन दिया गया था । इन गरीबों को खेल के बाद फिर से जीविका चलाने की स्वीकृति सरकार द्वारा मानवता के आधार पर नहीं बल्कि वोट बैंक की राजनीति के चलते देनी पड़ी। सड़कों पर दिखने वाले भिखारियों का भी हाल इससे इतर नहीं रहा, सरकार ने भिखारियों को हटाने में सारी तरकीब लगा दी लेकिन फिर भी इस पर काबू नहीं पाया जा सका तो बाद में सरकार ने कामनवेल्थ के दौरान इन्हें दिल्ली से दूर एनसीआर क्षेत्रों में टेन्टों में रखकर इस खाज पर पर्दा डालने का प्रयास किया । अगर सरकार इनके प्रति सकरात्मक सोच रखती और बेगर्स होम बनाकर इन्हें समाजसेवी संस्थाओं से जोड़कर रोजगार का सृजन कराती तो  इनकी स्थिति कुछ और ही होती। दिल्ली में विदेशी पर्यटकों को हरी भरी दिल्ली दिखाने के लिए सड़कों के किनारे रातो रात गमले सहित पौधे बिछा दिये गये लेकिन अब ऐसा लगता है कि इस हरियाली को किसी ने नजर लगा दी। गेम के दौरान फर्जी चलान न कर पाने वाले ट्रैफिक पुलिस अपनी सारी खीज गेम के बाद निकालने में जुट गयी है। दिल्ली के परिवहन की जान व दिल्लीवासियों की जान लेने वाली ब्लू लाइन बसें भी गेम के बाद अपनी रफ़्तार का कहर दिखाने के लिए तैयार नजर आ रही हैं। जबकि कामनवेल्थ गेम में शत प्रतिशत फ्रीक्वेंसी बनाये रखने वाली दिल्ली मेट्रो अपनी तकनीकी खामियों के चलते यात्रियों को रूलाने में फिर से जुट गयी है। दिल्लीवासियों का कामनवेल्थ के दौरान बेहतर आचरण की तारीफ करते सरकार थक नहीं रही और प्रश्न यह  है कि दिल्ली वाले ऐसा आचरण हमेशा ऐसे क्यों नहीं रखते। लेकिन बेहतर आचरण की अपेक्षा कर रही सरकार शायद यह कहावत भूल गयी है कि जैसा बीज बोयेगे वैसा ही फल काटेंगे।

अभय कुमार पाण्डेय