आज़ादी के बाद चहुँ ओर विकास हुए हैं , मगर गरीब अमीरी से और अमीर गरीबों से और भी दूर हुए हैं | पिछले सप्ताह फेसबुक पर एक कवयित्री जी ने यह प्रश्न उठाया कि " अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को कैसे पाटा जाए" | बहुत सारे तार्किकता और वास्तविकता वाले जवाब मिले और समाधान के साथ कुछ दर्शन और मानसिकता का स्पष्टीकरण भी हुआ |
हम लोग जब कोई भी उत्पाद खरीदते हैं तो एक दोहरा चरित्र धारण कर लेते हैं और यह चरित्र सामने के उत्पाद तथा विक्रेता के अनुसार बदलता है | महंगा और ब्रांडेड उत्पाद खरीदने के लिए उसकी कीमत से अधिक देकर भी संतुष्ट रहते हैं जबकि एक पाव टमाटर लेने से पहले भी एक-एक रूपये के लिए भी बहस करने लगते हैं | और अगर लगा कि सब्जी या फल वाले ने एक-दो रुपया अधिक ले लिया है तो बुरा लगने लगता है | ताज़ा फल, सब्जी, दूध हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है मगर हमें सस्ता चाहिए | वहीँ शराब या नशीले पेय के लिए अधिकतम दाम चुका कर, नशे में लुटकर और अपनी सेहत को नुक्सान पहुंचा कर भी शायद कोई मलाल होता हो | करोड़ों लगाकर घर बना सकते हैं लेकिन मजदूर को 10 रूपये ज्यादा नहीं दे सकते | फ्लाईट में हजारों खर्च करके , लाखों की गाड़ी खरीद कर ठगा सा महसूस होने पर अपने नुकसान की भरपाई के लिए एक रिक्शा वाले से 5 रूपये के लिए भी लड़ भी सकते हैं | और शायद इन्ही 2 या 5 रूपये से अपने महीने भर का बजट संतुलन करते हैं |
ये हमारे दिमाग में बैठ चुकी मानसिकता नहीं है तो क्या है ? देश में जनसँख्या के लिहाज से सबसे बड़ा मध्यम वर्ग तो इस प्रकार के जीवन को जीने का सबसे ज्यादा आदि हो चुका है , साथ ही यही मध्यम वर्ग अमीरी-गरीबी के बढ़ते हुए अंतर पर सर्वाधिक चिंतित भी नजर आता है | उच्च वर्ग के लोग तो और भी एक कदम आगे निकल जाते हैं , दिन भर के लिए लाखों अय्याशी में उड़ा देने वाले सब्जी या फल खरीदने के लिए अपनी गाड़ी से कुछ दूर सिर्फ इसलिए पैदल चल कर जाते हैं कि कहीं गाड़ी का खामियाजा 10-20 रु अधिक देकर न चुकाना पड़ जाये | किसी भी वर्ग की हो मगर महिलाएं इस कार्य के लिए अधिक निपुण होती हैं जो 25000 रु का मोबाइल हाथ में लेकर तथा लाखों कि ज्वेलरी पहन कर भी 2-2 रु का मोलभाव भलीभांति कर सकती हैं |
हमारे देश की लगभग 72 % जनसँख्या ग्रामीण है और उसमें ज्यादातर लोग कृषि कार्यों में लगे हैं , फिर भी 2009 -10 के कुल सकल घरेलु उत्पाद (जी डी पी) में मात्र 14.6 % का ही योगदान करते हैं , हालाँकि अभी राष्ट्र को अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर माना जा सकता है | दूसरी ओर औद्योगिक क्षेत्र का इसकी जी डी पी में 28 % का योगदान है | द्वितीयक क्षेत्र के लोग कृषि उत्पादों को सिर्फ पैक करा कर उत्पाद की कीमत को लगभग दुगुने मूल्य पर बेच लेते हैं | जबकि न तो वहां साल भर श्रम लगता है और न ही मौसम का जोखिम | इसके बदले अपना सबकुछ दांव पर लगाकर एक किसान अपने उत्पाद को बहुत ही कम दाम पर बेचने के लिए विवश है | क्या सिर्फ पैकिंग और भंडारण किसान के उत्पाद (प्रथम स्तर पर) से ज्यादा महंगा हो सकता है ? परन्तु तस्वीर तो यही है | यह हमारे देश के संचालकों ( राजनेताओं ) का अपने देश के किसानो के साथ किया जा रहा दुर्व्यवहार ही तो है जो किसानो और गरीबो के उत्थान के लिए एक सफल नीति बनाने में असफल रहे हैं |
लेकिन हम चाहें तो इस विडम्बना को कम करने में योगदान अवश्य कर सकते हैं | सबसे पहले अपनी गैर जरूरी विलासिताओं को कम करना होगा | श्रम आधारित कार्यों और उनमे लगे लोगो को समुचित सम्मान और पारिश्रमिक देने की नीयत पैदा करें | प्राथमिक स्तर के उत्पादों को उचित कीमत पर खरीदें न कि मामूली से परिवर्तन के साथ अनुचित मूल्य के मंहगे उत्पाद | सरकार को भी उत्पादों की कीमत तय करने के लिए ऐसे मानक बनाने होंगे जिससे लागत आवश्यकतानुसार ही बढ़ सके | ऐसा करने से इस देश के किसानो, मजदूरों व गरीबों की स्थिति जरूर सुधरेगी और 1 अरब से अधिक जनसँख्या वाले देश में मानवश्रम को न्याय प्राप्त होगा | इस से देश का अमीर तो अमीर ही रहेगा पर शायद यह छोटा सा कदम भी हमारे देश पर से गरीबी का भार कुछ कम कर सकता है |
प्रभात
aapne aaj ke paribesh ko hu bahu apne lekh me utara hai..
ReplyDeleteamiro aur garibo k bich khayi patne k liye aise hi soch ki jarurt hai,...
best of luck ..n keep it up..
thanks
abhay and nayi kiran team..
thanx
ReplyDeleteसमाज के एक तथाकथित “एलीट” वर्ग ने गाँव वालों को हमेशा “गँवई”, “अनसिविलाइज्ड” कहा और प्रचारित किया है। जबकि हकीकत यह है कि जैसे-जैसे अमीरी बढ़ती जाती है, “मैं”, “मेरा परिवार”, “मेरा पैसा”, “मेरी सुविधायें” वाली मानसिकता बढ़ती जाती है।
ReplyDeleteइससे भी बड़ा खेदजनक तथ्य तो यह है कि हिन्दुस्तान में गरीब और गरीबी के आंकड़े एक-दूसरे को झुठलाते हैं। आंकड़ों की यह बाजीगरी हुक्मरानों के हित साधती है, क्योंकि शासकों की मेहरबानी पर टिके संयुक्त राष्ट्र संघ या भारी भरकम बजट वाली अकादमियों में बैठे लोग निर्धनता मापने के मानदंड गढ़ते हैं। इनमें विरोधाभास होना लाजिमी है।
ReplyDeletebabal
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