जहां एक हिट सिनेमा में चारों तरफ पर्दे के आगे दिखने वाले नायक की वाहवाही चल पड़ती है और उस नायक के पीछे उसके खतरनाक सीन में जान डालने वाला स्टंटमैन पर्दे के पीछे ही रह जाता है। ठीक उसी प्रकार दिल्ली की चमक बन चुकी दिल्ली मेट्रो के 20 हजार श्रमिक जो आज भी खतरों से जूझते हुए सिर्फ स्टंटमैन बनकर रह गए वह भी पर्दे के पीछे।
दिल्ली मेट्रो की नींव ऐतिहासिक गाथाओं से कम नहीं है क्योंकि इतिहास में भी जो धरोहर बने वह भी श्रमिकों के रक्तरंजित रहे वहीं दिल्ली मेट्रो में अभी तक लगभग 100 श्रमिकों का जान गंवाना इसे भी इतिहास के धरोहरों में शामिल करता नजर आ रहा है।
दिल्ली मेट्रो आधुनिक तकनीक व इंजीनियरिंग का डंका पूरे विश्व में पीट रही है लेकिन दिल्ली मेट्रो के पास एक ऐसा हथियार रहा जिसका जिक्र करना सभी भूल गए वह है मैन पावर यानि मानव शक्ति मतलब दिल्ली में मेट्रो ने पिछले एक दशक से जिन मुकामों को छुआ है उनमें आखिरकार इन मैन पावर का जिक्र क्यों छिपकर रह गया।
पूरी दिल्ली मेट्रो इन श्रमिकों के खून पसीने पर खड़ा किया गया लेकिन इसके बदले में यह श्रमिक डीएमआरसी व मेट्रो प्रोजेक्ट का कार्य कर रहे कांटेक्ट कंपनियों के बीच अपने वजूद को ढूंढते नजर आ रही है। अभी तक जब भी मेट्रो कामयाबी का श्रेय लेने का वक्त आया तो हर किसी ने आगे बढ़कर इसे गले लगाया लेकिन जब भी इस कामयाबी पाने की त्वरित चाह में कुछ अनहोनी हुई तो हर कोई पल्ला झाड़ता नजर आया। मेट्रो प्रोजेक्टों पर हुए हादसे इस बात का गवाह रही क्योंकि ऐसे वक्त में फिर तथ्य डीएमआरसी व निर्माण एजेंसी कंपनियों के बीच श्रमिक पिसते रहे।
कहने को तो हमारे देश में श्रम कानून है जो श्रमिकों के हितों को ध्यान देने के लिए बनाई गई है लेकिन गर्मी के तेज तपिश भरी धूप में या दिसम्बर व जनवरी माह के कड़कड़ाती ठंड की परवाह किए बगैर 12-12 घंटे तक काम करने वाले श्रमिकों की न ही स्पष्ट न्यूनतम मजदूरी व साप्ताहिक अवकाश, पीपीएफ यूनियन बनाने जैसे मौलिक अधिकारों से वंचित रहे हैं। ऐसा नहीं की इसमें सारा दोष संस्था पर मढ़ना सही होगा क्योंकि संस्था ने तो बड़े-बड़े बोर्डों पर न्यूनतम मजदूरी लिखवा रखी है।
खैर अब इन पर्दे के पीछे के नायक की वर्तमान जीवकोपार्जन की स्थिति पर बात करे तो कांटेक्ट कंपनियों के द्वारा उप ठेकेदार रखे जाते हैं। यह उप ठेकेदार श्रमिकों को विभिन्न प्रदेशों से काम दिलाने के नाम पर लाते हैं। यह उप ठेकेदार या जाबर इन्हें मेट्रो में काम पर लगाता है और बड़ी संख्या में आए श्रमिकों को 10 से 15 की संख्या में एक-एक कमरे में ठहरा देता है।
इन श्रमिकों के लिए मेट्रो प्रोजेक्टों में काम करना ही इनकी दुनिया बन जाती है, पैसे की कमी व जीवन में बनी अस्थिरता का भय इन्हें सताता रहता है लेकिन मुकद्दर का फैसला समझ कर यह फिर सो जाते हैं और फिर उठने पर फिर मिशन मेट्रो।
पर्दे के पीछे के नायकों को आज भी अपने वजूद की तलाश जारी है। शायद कभी भविष्य में इन्हें भी पर्दे के पीछे नहीं पर्दे के सामने रखा जाए।
अभय कुमार पाण्डेय
दिल्ली मेट्रो की नींव ऐतिहासिक गाथाओं से कम नहीं है क्योंकि इतिहास में भी जो धरोहर बने वह भी श्रमिकों के रक्तरंजित रहे वहीं दिल्ली मेट्रो में अभी तक लगभग 100 श्रमिकों का जान गंवाना इसे भी इतिहास के धरोहरों में शामिल करता नजर आ रहा है।
दिल्ली मेट्रो आधुनिक तकनीक व इंजीनियरिंग का डंका पूरे विश्व में पीट रही है लेकिन दिल्ली मेट्रो के पास एक ऐसा हथियार रहा जिसका जिक्र करना सभी भूल गए वह है मैन पावर यानि मानव शक्ति मतलब दिल्ली में मेट्रो ने पिछले एक दशक से जिन मुकामों को छुआ है उनमें आखिरकार इन मैन पावर का जिक्र क्यों छिपकर रह गया।
पूरी दिल्ली मेट्रो इन श्रमिकों के खून पसीने पर खड़ा किया गया लेकिन इसके बदले में यह श्रमिक डीएमआरसी व मेट्रो प्रोजेक्ट का कार्य कर रहे कांटेक्ट कंपनियों के बीच अपने वजूद को ढूंढते नजर आ रही है। अभी तक जब भी मेट्रो कामयाबी का श्रेय लेने का वक्त आया तो हर किसी ने आगे बढ़कर इसे गले लगाया लेकिन जब भी इस कामयाबी पाने की त्वरित चाह में कुछ अनहोनी हुई तो हर कोई पल्ला झाड़ता नजर आया। मेट्रो प्रोजेक्टों पर हुए हादसे इस बात का गवाह रही क्योंकि ऐसे वक्त में फिर तथ्य डीएमआरसी व निर्माण एजेंसी कंपनियों के बीच श्रमिक पिसते रहे।
कहने को तो हमारे देश में श्रम कानून है जो श्रमिकों के हितों को ध्यान देने के लिए बनाई गई है लेकिन गर्मी के तेज तपिश भरी धूप में या दिसम्बर व जनवरी माह के कड़कड़ाती ठंड की परवाह किए बगैर 12-12 घंटे तक काम करने वाले श्रमिकों की न ही स्पष्ट न्यूनतम मजदूरी व साप्ताहिक अवकाश, पीपीएफ यूनियन बनाने जैसे मौलिक अधिकारों से वंचित रहे हैं। ऐसा नहीं की इसमें सारा दोष संस्था पर मढ़ना सही होगा क्योंकि संस्था ने तो बड़े-बड़े बोर्डों पर न्यूनतम मजदूरी लिखवा रखी है।
खैर अब इन पर्दे के पीछे के नायक की वर्तमान जीवकोपार्जन की स्थिति पर बात करे तो कांटेक्ट कंपनियों के द्वारा उप ठेकेदार रखे जाते हैं। यह उप ठेकेदार श्रमिकों को विभिन्न प्रदेशों से काम दिलाने के नाम पर लाते हैं। यह उप ठेकेदार या जाबर इन्हें मेट्रो में काम पर लगाता है और बड़ी संख्या में आए श्रमिकों को 10 से 15 की संख्या में एक-एक कमरे में ठहरा देता है।
इन श्रमिकों के लिए मेट्रो प्रोजेक्टों में काम करना ही इनकी दुनिया बन जाती है, पैसे की कमी व जीवन में बनी अस्थिरता का भय इन्हें सताता रहता है लेकिन मुकद्दर का फैसला समझ कर यह फिर सो जाते हैं और फिर उठने पर फिर मिशन मेट्रो।
पर्दे के पीछे के नायकों को आज भी अपने वजूद की तलाश जारी है। शायद कभी भविष्य में इन्हें भी पर्दे के पीछे नहीं पर्दे के सामने रखा जाए।
अभय कुमार पाण्डेय
this article gives a very god insight about metro laborer .even mainstream media tend to stay away from showing the plight of these por men.
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